जैसा कि मैंने पहले बताया था कि योगराज गुग्गुलु में काष्ठ औषधियां, जड़ी बूटियां ही होती हैं किंतु महा योगराज गुग्गुलु में ऐसा नहीं है। महायोगराज गुग्गुलु में भस्मों का समावेश भी होता है। रौप्य भस्म, लौह भस्म, अभ्रक भस्म, मंडूर भस्म, वंग भस्म होते हैं । इन भस्मों का अपना-अपना प्रभाव और गुण होता है।
जैसे –
अभ्रक भस्म – मज्जा धातु के विकारों को दूर करती है। वात के कारण से संचित वात का शमन करती है। मज्जा धातु के संवर्धन और रक्षण में मदद करती है। Tendon के विकारों में यानि कंडराओं की बीमारी में लाभकारी होती है। वैसे यह दीपन, पाचन भी करती है।
रौप्य भस्म – स्नायु पर यानि जो Ligaments हैं उनमें वृद्धि को प्राप्त हुये वात, पित्त का शमन करती है। मांस धातु में स्थित दूषित या विकृत वात को कम करने में मददगार होती है। कंडराओं ( Tendon )की कार्य क्षमता को बढ़ाती है।
वात पित्त शामक होने से स्नायुओं व मांसपेशियों को बल प्रदान करती है।
मंडूर भस्म – मज्जा धातु की दौर्बल्यता को कम करती है। कफ पित्तघ्न है और लेखन कर्म भी करती है।
बंग भस्म – उत्तरोत्तर धातुओं का पोषण और बल प्रदान करने का काम करती है। कफ वात नाशक है। बृहण कर्म करती है और गुण वृष्य है ।
लौह भस्म – विशेष रूप से Bone marrow में इसकी उपयोगिता अधिक होती है। बल्य है और कफ पित्त नाशक है।
महायोगराज गुग्गुलु में स्वर्ण भस्म का योग भी आता है जो काफी प्रभावशाली होता है। क्योंकि स्वर्ण भस्म संपूर्ण शरीर में अपना प्रभाव डालती है। यह कुपित हुये तीनों दोषों का शमन करती है। दोषों का शमन करने के साथ-साथ स्वर्ण भस्म संपूर्ण धातुओं का पोषण भी करती है। जिस धातु का क्षय हुआ है उस धातु को बल प्रदान करती है और शरीर में ओज का रक्षण और निर्माण करती है। शरीर में रोग प्रतिरोधक शक्ति को बढ़ाती है।
स्वर्ण भस्म आयुष्यवर्धक, बलवर्धक है। संपूर्ण शरीर पर इसका प्रभाव होने के कारण यह संपूर्ण शरीर में दूषित दोषों का शमन और नियंत्रण करती है।
इसी प्रकार श्रृंग भस्म को भी इसके साथ मिलाया जा सकता है। श्रृंग भस्म अस्थि धातु में बृहण का कार्य करती है और अस्थि क्षय को रोकने में मदद करती है। इसमें कैल्सियम की प्रचुर मात्रा होने से यह अस्थि धातु को पुष्ट करती है। अस्थिधातु के वातजन्य विकारों को कम करती है।
सभी भस्में वैसे तो सभी उम्र में उपयोगी होती हैं किंतु विशेष रूप से वृद्धावस्था में जब स्वाभाविक रूप से वात दोष प्रकुपित होता है तब बहुत ही लाभकारी सिद्ध होती है।
रससिंदूर – यह रसायन है, योगवाही है। कफघ्न होने से श्वासवह स्त्रोतस पर विशेष कार्य करता है। वृष्य भी है।
अनुपान – जहां तक संभव हो महायोगराज गुग्गुलु अश्वगंधारिष्ट के साथ या दुग्ध के साथ देना चाहिये।
महायोगराज गुग्गुलु धातु पुष्टि का काम करता है। जहां हमें इस बात का निश्चय हो जाये कि शरीर में धातुओं का क्षय हो रहा है, धातुयें कमजोर हो रही हैं तो हमें महायोगराज गुग्गुलु का प्रयोग करना चाहिये।
वृद्धावस्था में वात का प्रकोप तो रहता ही है जो स्वाभाविक है। इस अवस्था में महायोगराज गुग्गुलु बहुत ही लाभकारी सिद्ध होता है।
वनस्पतियों और अन्य औषधीय द्रव्यों के अलावा महायोगराज गुग्गुलु में भस्मों का समावेश होने से यह हमारे तंत्रों ( Systems ) पर अधिक असरकारक सिद्ध होता है।
महायोगराज गुग्गुलु को लंबे समय तक नहीं देना चाहिये।
अपथ्य –
ठण्डा भोजन, शीतल द्रव्य , जैसे आईसक्रीम, कुल्फी, शीतपेय, फ्रिज के सामान का त्याग करना चाहिते।
खट्टे पदार्थों का सेवन बिल्कुल वर्ज्य बताया गया है। विशेषतौर पर इमली का आग्रह कुछ लोग करते हैं , पानीपुरी वगैरह में। इमली का सेवन किसी भी रुप में नहीं करना चाहिेए।
अगर किसी रोगी को कोष्ठबद्धता की शिकायत है तो योगराज गुग्गुलु और महा योगराज गुग्गुलु दोनों के साथ मृदु विरेचक का प्रयोग करना चाहिये जिससे दोषों का शरीर से निर्हरण किया जा सके।
निवेदन –
बिना चिकित्सक की सलाह के किसी भी औषधि का प्रयोग नहीं करना चाहिये।
डॉ श्यामसुंदर शर्मा
बीएससी, बीएएमएस ( मुंबई)
सचिव, मुंबई वैद्य सभा
सीनियर उपाध्यक्ष महाराष्ट्र आयुर्वेद सम्मेलन
योग टीचर एवं ईवेल्युएटर, आयुष मंत्रालय
9821073911